क्या कभी सवेरा लाता है अंधेरा
सूखी सियाही देती है गवाही
सदियों पुरानी ऐसी इक कहानी
रह गयी, रह गयी, अनकही ...
क्या कभी बहार भी, पेशगी लाती है
आने वाले पतझड़ की
बारिशें नाराज़गी भी जता जाती है
कभी कभी अम्बर की
पत्तें जो शाखों से टूटे
बेवजह तो नहीं रूठे हैं सभी
ख्वाबों का झरोंखा, सच था या धोखा
माथा सहला के निंदिया चुराई
सदियों पुरानी ऐसी इक कहानी
रह गयी, रह गयी, अनकही ...