दिल जो न कह सका
वोही राज-ए-दिल कहने की रात आई
नग्मा सा कोई जाग उठा बदन में
झनकार की सी थरथरी है तन में
मुबारक तुम्हें किसी की लरजती सी बाहों में रहने की रात आई ...
तौबा यह किसने अंजुमन सजा के
टुकड़े किए हैं गुंचा-ए-वफ़ा के
उछा लो गुलों के टुकड़े के रंगीन फिजाओं में रहने की रात आई ...
चलिए मुबारक जश्न दोस्ती का
दामन तो थामा आपने किसी का
हमें तो खुशी यही है, तुम्हें भी किसीको अपना कहने की रात आई ...
सागर उठाओ दिल का किसको गम है
आज दिल की कीमत जाम से भी कम है
पियो चाहे खून-ए-दिल हो, के पीते पिलाते ही
वोही राज-ए-दिल, कहने की रात आई